कांच का महल एक
सजाया था मैंने,
उमीदों के पंख लगा कर
करती रही सवारी
उस नीलगगन की.
बस एक
यथार्थ के झोंके ने
तोड़ दिया
मेरा शीश महल.
कैसे गयी थी मैं भूल,
एक लड़की को
नहीं आज़ादी
अपने लिए
कुछ सोचने समझने की,
क्यूँ नहीं था
याद मुझे
कितना जरुरी है
बने रहना धरातल पे.
गलती थी मेरी
शायद!
इसीलिए भोग रही हूँ
इस पीडा को,
सपनों के शीश महल के
अवशेष खोज रही हूँ
तस्वीरों में.
इतना सब
होने पर भी
सपने तो पीछा
नहीं छोड़ते
उमीदों भरे बादल
उस गगन का
आँचल नहीं छोड़ते...
नीलिमा
Saturday, November 29, 2008
Wednesday, November 12, 2008
हर गुजरती शाम के साथ...
चकित
विस्मित
भ्रमित
हो जाती हूँ मैं
देखकर अपने मोहन का
नया रूप हर दिन!!!
सोचती हूँ
कैसे होते मेरे दिन
अगर ना मिलता मुझे
साथ मेरे मोहन का?
जाते हर लम्हे के
संग बढ़ता जाता है
ये सम्मोहन
मिलने बिछड़ने का
ये अद्भुत अनोखा चक्र.
उम्मीद
नाउम्मीदी
के बीच
पसरी हुई
एक ज़िन्दगी
बदलती तस्वीर
हर सुबह के साथ
लेकिन बढता ही
जाता है
मेरा प्यार
अपने मोहन के लिए
हर गुजरती शाम
के साथ...
विस्मित
भ्रमित
हो जाती हूँ मैं
देखकर अपने मोहन का
नया रूप हर दिन!!!
सोचती हूँ
कैसे होते मेरे दिन
अगर ना मिलता मुझे
साथ मेरे मोहन का?
जाते हर लम्हे के
संग बढ़ता जाता है
ये सम्मोहन
मिलने बिछड़ने का
ये अद्भुत अनोखा चक्र.
उम्मीद
नाउम्मीदी
के बीच
पसरी हुई
एक ज़िन्दगी
बदलती तस्वीर
हर सुबह के साथ
लेकिन बढता ही
जाता है
मेरा प्यार
अपने मोहन के लिए
हर गुजरती शाम
के साथ...
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